युग-पुरुष महन्त दिग्विजयनाथ जी महाराज
स्वाधीनता संग्राम को उग्र बनाने के लिए उन्होंने स्वयंसेवकों का जत्था भेजा। गोरक्षा आंदोलन का देशव्यापी प्रचार किया। अयोध्या में राम जन्म भूमि के उद्धार कार्य में उन्होंने हार्दिक सहयोग प्रदान किया। सन् 1955-56 में मास्टर तारासिंह ने पृथक पंजाबी सूबे की मांग की। इस मांग को लेकर उन्होंने आमरण अनशन भी प्रारम्भ कर दिया। महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज राष्ट्रीय एकता को किसी भी मूल्य पर खंडित होते नहीं देखना चाहते थे। उन्होंने मास्टर तारा सिंह से भेंट की। परिस्थिति की गंभीरता और उसके भावी परिणाम से परिचित कराया। अन्ततः मास्टर तारा सिंह ने अनशन त्याग दिया। इससे स्वतः ही ब्रह्मलीन महंतजी की निष्ठा, दूरदर्शिता, सूझबूझ एवं राजनीतिक प्रभाव का परिचय प्राप्त होता है।
11 मई सन् 1957 में दिल्ली में प्रथम स्वाधीनता संग्राम का शताब्दी समारोह मनाया गया। इस समारोह की अध्यक्षता स्वातंत्र्य सेनानी वीर सावरकर जी ने की थी। भारत की स्वतंत्रता के लिए आजीवन संघर्षशील महंतजी ने इस समारोह में अपना पूरा सहयोग प्रदान किया था। समारोह की सफलता का श्रेय चाहे जो ले किंतु समारोह की सच्ची भावना के प्रतीक दो ही नेता थे, वीर सावरकर और महंत दिग्विजयनाथजी।
सन् 1959 में काशी विश्वनाथ मंदिर उद्धार आंदोलन में उन्होंने भाग लिया। दफा 144 को भंग करने के आरोप में उनके अनेक सहकर्मी गिरफ्तार हो गये। महंतजी ने राज्यपाल को पत्र लिखकर मंदिर के उद्धार के औचित्य पर बल दिया। भारत गणराज्य की स्वदेशी सरकार हिन्दू कोड बिल, हिन्दू विवाह और तलाक तथा हिन्दू सम्पत्ति उत्तराधिकार अधिनियम जैसे कानूनों का निर्माण कर हिन्दू सत्वों पर कुठाराघात कर रही थी। महंतजी ने इन बिलों का विरोध किया। सन् 1960 में हरिद्वार में अखिल भारतीय षट्दर्शन साधु सम्मेलन के अध्यक्ष पद से उन्होंने इन बिलों का विरोध किया और अपने ओजस्वी भाषणों से उनके विरुद्ध जनमत जागृत किया।
राष्ट्रीय संकट का वर्ष 1962
बाह्य और आंतरिक दोनों दृष्टियों से सन् 1962 का वर्ष देश के लिए घोर संकट का समय था। उस समय तक पंचशील के सिद्धांतों पर आधरित हिन्दी- चीनी मैत्री का संबंध टूट चुका था। चीन ने लगभग 12 सहस्त्र वर्गमील भारतीय भूमि पर अधिकार कर लिया था। युद्ध की आशंका बलवती होती जा रही थी। इधर देश में बढ़ती हुई मुस्लिम साम्प्रदायिकता की भावना नयी दिशा की ओर संकेत कर रही थी। केरल में मुस्लिम लीग की स्थापना हो चुकी थी। पाकिस्तान के संकेतों पर देश में ही पंचमार्गियों का एक बहुत बड़ा वर्ग प्रस्तुत हो रहा था। सन् 1961 में अखिल भारतीय स्तर पर मुसलमानों को संगठित करने का प्रयास हुआ था। दिल्ली में उनकी एक विशाल सभा हुई। भारत की किसी भी राजनीतिक संस्था ने इस साम्प्रदायिक सम्मेलन के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं कहा। महंतजी ने उसी समय यह आशंका व्यक्त की कि यह मुस्लिम सम्मेलन मुस्लिम लीग के संगठन और देश के पुनर्विभाजन की नींव को मजबूत करने वाला है। उन्होंने उसका खुलकर विरोध किया।
अक्टूबर 1961 में महंतजी ने मुस्लिम साम्प्रदायिकता का विरोध करने के लिए अखिल भारतीय हिन्दू सम्मेलन का आयोजन दिल्ली में किया। सम्मेलन की अध्यक्षता कलकत्ता उच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश तथा कलकत्ता विश्वविद्यालय के भूतपूर्व उपकुलपति और बंगाल विधान परिषद के सदस्य डॉ. चिंतामणि देशमुख ने भी भाग लिया था। जनरल करियप्पा ने भी इस सम्मेलन में उपस्थित होकर अपने राष्ट्र प्रेम का परिचय दिया था। महंतजी ने उस सम्मेलन को मुस्लिम साम्प्रदायिकता के बढ़ते हुए रोग के लिए एक मात्र औषधि कहा था।
हिन्दू महासभा के अध्यक्ष
हिन्दू महासभा ने सन् 1960 में महंतजी को महासभा का अध्यक्ष निर्वाचित किया था। वे हिन्दू जाति के राष्ट्रपति कहे गये। देश की बिगड़ती हुई स्थिति को देखते हुए महंतजी ने हिन्दू राष्ट्रपति के अनुरूप आचरण करके हिन्दू जाति और धर्म की रक्षा का अथक प्रयास किया। अखिल भारतवर्षीय हिन्दू महासभा के अधिवेशन में उन्होंने अपने समस्त आलोचकों और विरोधियों को जो उत्तर दिया था। वह ऐतिहासिक दृष्टि से बड़ा ही महत्वपूर्ण था।
विश्व हिन्दू धर्म सम्मेलन
सन् 1965 में महंतजी ने अखिल विश्व हिंदू धर्म सम्मेलन का आयोजन दिल्ली में किया। इस सम्मेलन मे विभिन देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। तीन जगदगुरु शंकराचार्यों की उपस्थिति बड़ी महत्वपूर्ण थी। डॉ. राधा कृष्णन ने भी सम्मेलन को सम्बोधित किया था।