गोरक्षपीठाधीश्वर, श्री गोरक्षपीठ
गोरखनाथ मन्दिर के महन्त योगी राजराजेश्वर गुरु गोरखनाथजी के प्रतिनिधि के रूप में सम्मानित होते हैं। इस मन्दिर के प्रथम महन्त श्रीवरदनाथजी महाराज कहे जाते हैं, जो गुरुगोरखनाथजी के शिष्य थे। महाराष्ट्र के संत-साहित्य के महान विद्वान और संतचरित्रलेखक स्वनामधन्य लक्ष्मण रामचन्द्र पंगारकर ने स्वीकार किया है कि गोरखनाथमठ की देखरेख के लिए गोरखनाथजी महाराज ने अपने एक गुरु भाई को नियुक्त किया था। ब्रिग्स ने ‘गोरखनाथ एण्ड कनफटायोगीज’ में उनका यह अभिमत उद्धृत किया है। बाबा परमेश्वरनाथ नाम के एक अत्यन्त प्रभावशाली महन्त की महिमा का आज भी गुणगान किया जाता है। परन्तु बुद्धनाथजी का नाम गोरखनाथ-मन्दिर का जीर्णोद्धार करने वालों में अग्रगण्य है। उनका समय 1708 ई. से 1723 ई. तक अनुमानित है। बाबा रामचन्द्रनाथजी ने उनके बाद इस मन्दिर की व्यवस्था सँभाली। तदनन्तर महन्त पियारनाथजी इस मठ के महन्त थे। फिर बालकनाथजी इस मठ के महन्त हुए। बालकनाथजी के ब्रह्मलीन होने के बाद योगी मनसानाथ पचीस वर्षों तक इस मठ के महन्त पद को सुशोभित करते रहे। इनके पश्चात् 1811 ई. से 1831 ई. तक संतोषनाथजी महाराज और 1831 ई. से 1855 ई. तक मेहरनाथजी महाराज ने महन्त-पद को अलंकृत किया। तत्पश्चात् 1855 ई. से 1896 ई. तक उनके शिष्य दिलवरनाथजी ने महन्त-पद सँभाला। 1896 ई. में उनके उत्तराधिकारी महन्त सुन्दरनाथजी महाराज महन्त पद पर अधिष्ठित हुए। उन्हीं के महन्त काल में लम्बे अरसे तक सिद्धपुरुष योगिराज बाबा गम्भीरनाथजी महाराज महन्त-पद का दायित्व सँभालते रहे तथा मन्दिर की शान्तिपूर्ण व्यवस्था में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया। श्री सुन्दरनाथजी के ब्रह्मलीन होने के पश्चात् योगमूर्ति बाबा ब्रह्मनाथजी महाराज, जो योगिराज गम्भीरनाथजी के प्रमुख शिष्य थे, महन्त-पद पर अभिषिक्त हुए। ब्रह्मनाथजी बड़े तेजस्वी, शान्त और गम्भीर योगी थे। 1934 ई. में बाबा ब्रह्मनाथजी के समाधिस्थ होने पर योगिराज श्री दिग्विजयनाथजी महाराज ने 35 साल तक महन्त-पद को समलंकृत किया। श्रीदिग्विजयनाथजी महाराज के ब्रह्मलीन होने के बाद 27 सितम्बर 1969 ई. से उनके सुयोग्य शिष्य महन्त अवेद्यनाथजी महाराज गोरक्षपीठाधीश्वर के पद पर अधिष्ठित हैं। इस ऐतिहासिक मन्दिर के योग्य महन्तों ने अपनी कार्यक्षमता और योगशक्ति से इसे गौरवान्वित तो किया ही, साथ -ही-साथ यह भी महत्त्व का विषय है कि अनेक योगियों, विद्वानों और आध्यात्मिक सिद्ध पुरुषों तथा महात्माओं ने भी समय-समय पर यहाँ निवास कर मन्दिर की गरिमा में श्रीवृद्धि की तथा जन-जीवन को आध्यात्मिक शक्ति से सम्पन्न किया। इस मन्दिर में महायोगी गम्भीरनाथ की योगसाधना और दार्शनिक विचार-धारा से प्रभावित होकर उनके बंगीय शिष्यों का समय-समय पर आगमन होता रहता था। उनमें नाथ-सम्प्रदाय के योगसिद्धान्त में अटूट श्रद्धा रखने वाले योगी शान्तिनाथजी और निवृत्तिनाथजी काफी अरसे तक यहाँ योगसाधना और आध्यात्मिक चिन्तन में तत्पर रहे। शान्तिनाथजी ने 28 अक्टूबर 1948 ई. को पार्थिव शरीर त्याग कर आत्मसायुज्य प्राप्त किया। योगिराज गम्भीरनाथजी के ही शिष्य थे महामति गम्भीर दार्शनिक विद्वद्वर अक्षयकुमार वन्द्योपाध्याय। वे अंग्रेजी और बंगला भाषा के विद्वान तो थे ही साथ-ही-साथ हिन्दी भाषा में उनकी अच्छी गति थी। पहले वन्द्योपाध्याय महोदय आनन्दमोहन कालेज मैमनसिंह (बांग्ला देश) में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक थे। उन्होंने महाराणा प्रताप कालेज, गोरखपुर में आचार्य पद पर दायित्व अपने जीवन के चौथे चरण में सँभाला और वहाँ से सेवानिवृत्त हो अध्यात्मचिन्तन में लीन रहने लगे। उनकी विचार-धारा से पण्डित रघुनाथ प्रसाद शुक्ल, प्राध्यापक, डी.बी.कालेज के (उप-प्राचार्य) विशेष प्रभावित थे, और उनके कई ग्रन्थों का उन्होंने हिन्दी में रूपान्तर किया था। वन्द्योपाध्याय महोदय के अनेक ग्रन्थ (1.) फिलॉसफी ऑफ गोरखनाथ (2.) गोरखदर्शन (3.) आदर्श योगी (4.) नाथयोग (5.) योगरहस्य आदि मन्दिर की ओर से प्रकाशित हैं। उनकी समाधि-स्थली मन्दिर के प्रांगण में ही एक पार्श्व में सुशोभित है। इस मन्दिर के पवित्र वातावरण में निवास करने वालों में योगी भक्तिनाथ का नाम बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है। वे रात-दिन 24 घण्टों में केवल एक बार एक गिलास दूध पिया करते थे और मन्दिर-क्षेत्र का भ्रमण करते रहते थे। महन्त ब्रह्मनाथजी के दो प्रमुख शिष्य योगी दशमीनाथजी और भगवतीनाथजी ने भी मन्दिर की बड़ी सेवा की है। उनकी समाधियाँ मन्दिर के ही प्रांगण में पार्श्व में स्थित हैं। महन्त श्रीअवेद्यनाथजी महाराज के विशेष विश्वासपात्र योगी बाबा कृष्णनाथ परमहंसजी और योगी श्री नवमीनाथजी महाराज के नाम योगसाधकों में विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। बाबा नवमीनाथजी ने 90 वर्ष से अधिक उम्र में सन् 1998 ई. में शरीर त्यागा।