पूजा-पद्धति
शिव के साक्षात् योगस्वरूप भगवान् योगेश्वर गोरक्षनाथजी की पूजा गोरखनाथ-मन्दिर में नित्य अनुष्ठित होती है। नित्य अर्धरात्रि के बाद ही लगभग एक बजे पुजारी तथा अन्य पूजकगण और सेवक उठ कर प्रातः क्रिया तथा स्नानादि से निवृत्त होकर मन्दिर में पहुँच जाते हैं। विशाल नाथ-मन्दिर तथा उससे संलग्न अन्य सभी प्रतिष्ठित देवी-देवताओं के मन्दिरों और देवमूर्तियों की मार्जनी क्रिया आरम्भ हो जाती है। तीन बजे से पूर्व ही उषाकाल के आरम्भ होने के पहले सर्वप्रथम श्रीनाथजी के विग्रह को गंगाजलमिश्रित कूपजल से स्नान कराया जाता है। उसके पश्चात् स्वच्छ भगवा वस्त्र से उन्हें अलंकृत कर शुद्ध मलयागिरि चन्दन का तिलक लगाया जाता है। उसके पश्चात् उन्हें सुन्दर सुगन्धित और आकर्षक पुष्पहार पहनाया जाता है, फिर श्रीनाथजी पर अक्षत चढ़ाये जाते हैं, इसके पश्चात् बिल्वपत्र, तुलसीदल और पुष्पों से श्रीनाथजी का और उनकी चरणपादुकाओं का भव्य श्रृंगार किया जाता है। इसी प्रकार मन्दिर के सभी अन्य देवी-देवताओं को शास्त्रोक्त विधि से अलंकृत किया जाता है। ये सारी क्रियाएँ प्रातः तीन बजे के पहले ही पूर्ण हो जाती हैं। ठीक तीन बजते ही श्रीनाथ जी की पूजा प्रारम्भ हो जाती है। पुजारी अपने मुख को एक भगवा वस्त्र से ढक लेते हैं। सर्वप्रथम धूप से श्रीनाथजी का पूजन प्रारम्भ होता है। पुजारीजी एक हाथ से घण्टी बजाते हैं और दूसरे हाथ से धूप की आरती करते हैं। उनके संकेतानुसार पहले एक मिनट के अन्तर पर फिर पाँच-पाँच मिनट के अन्तर पर घण्टी और नगाड़े बजाये जाते हैं। ज्यों-ज्यों पूजा का क्रम उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों घण्टानाद और नगाड़ों की ध्वनि तीव्र होती जाती है। उसके पश्चात् मन्दिर में स्थापित सभी अन्य देवताओं- गणेशजी, कालीजी, कालभैरव, शीतलाजी, अखण्डदीपजी, श्रीभैरवजी, श्रीशिवजी, श्रीहनुमानजी, श्रीहट्ठी माई, श्रीसन्तोषी माताजी, श्रीअखण्डधूना, भीम बाबा, बाबा ब्रह्मनाथजी, बाबा गम्भीरनाथजी, बाबा दिग्विजयनाथ जी, बाबा अवेद्यनाथ जी के समाधि-मन्दिर आदि तथा अन्य संत-महात्माओं एवं योगियों की समाधियों तथा श्रीदुर्गाजी की धूप से आरती की जाती है। धूप से आरती किये जाने के पश्चात् घृत की सात फूल-बत्तियों से श्रीनाथ जी तथा अन्य सभी देवताओं की आरती की जाती है। पर्याप्त देर तक यह क्रम चलने के पश्चात् श्रीनाथजी पर चँवर डुलाने के बाद श्रीनाथजी पर मोरछल हिलाया जाता है। इसके पश्चात् पुनः धूप से श्रीनाथजी की आरती होती है। उसके बाद फिर चँवर डुलाया जाता है। तदन्तर श्रीनाथजी की कपूर से आरती की जाती है और उसके पश्चात् पुनः धूप से आरती की जाती है। प्रातःकालीन पूजा की समाप्ति के पश्चात् योगेश्वर भगवान गोरक्षनाथ की प्रशस्ति के रूप में गोरक्षनाथस्तवाष्टक का सस्वर पाठ किया जाता है। पुजारी श्रीमहन्तजी के प्रतिनिधि के रूप में मन्दिर के श्रीनाथविग्रह की पूजा करते हैं। पूजा करते समय मौन रहकर भी मन में ही शिवगोरक्ष का ध्यान करते हुए पूजन करना होता है। धूप, आरती और कपूर की आरती करने के पश्चात् तीनों बार ही आचमन कराया जाता है, इसके पश्चात् श्रीनाथजी का मध्याह्न भोग लगाया जाता है। भोग में गाय का शुद्ध ताजा दूध, पूड़ी, किसमिस और ऋतुफल सेव, केला आदि समर्पित किये जाते हैंे। सप्ताह में रविवार और मंगलवार को एक विशिष्ट प्रकार के नैवेद्य जिसे रोट कहते हैं, का भोग लगाया जाता है।
विशेष पर्वों और त्योहारों पर विशेष प्रकार का रोट बनाया जाता है, जिसे नैवेद्य के रूप में श्रीनाथजी को समर्पित किया जाता है। भोग लगाते समय भी घण्टी और नगाड़े बजाये जाते हैं, भोग की सामग्री रजत पात्र में सजाकर श्रीनाथजी के समक्ष रख दी जाती है और तत्पश्चात् मन्दिर के द्वार बन्द कर दिये जाते हैं। भोग लगाने के पश्चात् द्वार पुनः खोल दिये जाते हैं। पूजा के समय और भोग लगाते समय दोनों ही बार पुजारी श्रीनाथजी के मन्दिर की परिक्रमा करते हैं। द्वार खोलने के पूर्व पुजारी सिंगीनाद से तीन बार श्रीनाथजी को अभिवादन करते हैं। भोग की सामग्री प्रसाद के रूप में भक्तों में वितरित कर दी जाती है। मध्याह्न में ही बेलपत्र के रूप में श्रीनाथजी के भण्डार से श्रीभैरवजी और गौ के लिये ग्रास निकाला जाता है और तत्पश्चात् श्रीनाथजी के मन्दिर में द्वार के समक्ष खड़े होकर उच्चस्वर से पुकार की जाती है :-
‘‘सिद्धो-गुरुपीरो! श्रीनाथजी का भण्डारा तैयार है। हरि-हर’’
इसका अर्थ यह होता है कि श्रीनाथजी का भण्डारा (भोजन) तैयार हो गया है, जो भी महानुभाव भोजन करना चाहें, भण्डार में चलें। उस समय जो भी भण्डार में पहुँच जाता है-उसे अवश्य भोजन कराया जाता है। प्रतिदिन संत, महात्मा, विद्वान ब्राह्मण, विकलांग, दीन-दुखी और निर्धन लोग इस अवसर पर श्रीनाथजी के भण्डार में भोजन-प्रसाद पाते हैं।
सायंकाल ठीक 6 बजे से श्रीनाथ जी का पूजन प्रारम्भ हो जाता है, जो रात्रि में आठ बजे तक चलता रहता है। श्रीनाथजी के मन्दिर की घण्टी बज उठती है। घण्टों और नगाड़ों के निनाद के साथ श्रीनाथजी की पूजा प्रारम्भ होती है। सर्वप्रथम धूप से श्रीनाथजी की आरती होती है और इसके बाद घृत के सात फूलबत्तियों से आरती की जाती है, फिर श्रीनाथजी पर चँवर डुलाया जाता है और उसके पश्चात् मोरछल हिलाया जाता है, उसके पश्चात् पुनः धूप से श्रीनाथजी की आरती की जाती है, तदनन्तर चँवर डुलाया जाता है और उसके पश्चात् कपूर से आरती की जाती है और अन्त में पुनः धूप से आरती की जाती है। इसी प्रकार सभी देवताओं का क्रमशः पूजन किया जाता है।
मन्दिर में सामूहिक रूप से श्रीगोरक्षनाथजी की संध्या-आरती गायी जाती है। इस प्रकार प्रतिदिन श्रीनाथजी के गोरखपुर-मन्दिर में पूजा विधिपूर्वक सम्पन्न होती है। रात्रि में आरती समाप्त होने के पश्चात पुनः बेलपत्र के रूप में श्री भैरवजी और गौ माता के लिए ग्रास निकाला जाता है और तत्पश्चात् श्रीनाथजी के समक्ष उच्च स्वर में घोषणा की जाती है कि :-
"सिद्धो-गुरुपीरो! श्रीनाथजी का भण्डारा तैयार है। हरि-हर।"
इसका आशय है कि रात्रिकालीन भोजन भण्डार तैयार है। सभी भोजन करने के इच्छुक महानुभाव भोजन करने के लिये भण्डार चलें। इस गोरखनाथ-मन्दिर, गोरखपुर का सम्बन्ध् श्रीमाई पाटेश्वरी देवी मन्दिर,(पाटन) तुलसीपुर गोंडा तथा श्रीदांग् चौधरा नेपाल से भी है। जिस समय यहाँ पर पूजन समाप्त होता है, उस समय देवीपाटन-मन्दिर, तुलसीपुर में पूजन प्रारम्भ हो जाता है और जिस समय वहाँ पूजन समाप्त हो जाता है, उस समय दांग् चौधरा में पूजन प्रारम्भ हो जाता है। इस प्रकार इन तीनों स्थानों में निरन्तर चौबीसों घण्टे पूजा का क्रम चलता रहता है। हरिद्वार स्थित गोरक्षनाथ-मन्दिर इस समय योगी महासभा का प्रमुख केन्द्र है, जिसे दलीचा बारहपंथ भी कहते हैं। इस मन्दिर में भी उपरोक्त विधि से ही पूजन होता है।