युग-पुरुष महन्त दिग्विजयनाथ जी महाराज
प्रांतीय हिन्दू महासभा के अध्यक्ष थे। धर्मवीर भोपटकर की अध्यक्षता में होने वाला यह अधिवेशन राजनीतिक और धार्मिक दोनो दृष्टियों से महत्वपूर्ण था। उस समय भारत के विभाजन का कुचक्र तेजी से चल रहा था। नोवाखाली, त्रिपुरा, कोमिला आदि स्थानों पर हिन्दुओं के ऊपर संगठित ढंग से आघात किये गये थे। महंतजी के प्रयास से इस अधिवेशन में अखण्ड भारत आंदोलन का शक्तिपूर्वक समर्थन किया गया था। दूसरी ओर परिस्थितियों को देखते हुए समस्त हिन्दू जाति को अपनी कट्टरता और रूढ़िवादिता को त्यागकर उदार होने की अपील की गई। इस अधिवेशन का तत्काल प्रभाव पड़ा। पाकिस्तान निर्माण का कार्य 1946 में ही हो जाने वाला था। वह कम से कम एक वर्ष के लिए तो रुक ही गया।
ब्रिटिश नौकरशाही ने मुस्लिम लीग के नेताओं को पहले से ही प्रोत्साहन दे रखा था। उन्होंने मुसलमानों को महत्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर नियुक्त कर रखा था। ये मुसलमान अधिकारी विभाजन के अवसर पर बहुत घातक सिद्ध होंगे, यह सोचकर मंहतजी ने इसका खुलकर विरोध किया। उत्तर प्रदेश में उस समय 70 प्रतिशत प्रशासनिक पदों पर मुसलमान ही थे। पुलिस और गुप्तचर विभाग उन्हीं से भरा था। इन तत्वों के भीतर छिपी हुई कुटिल राजनीति को परख कर महंतजी ने 9 अगस्त 1947 को लखनऊ में हिन्दुओं की 10 सूत्रीय मांगों को लेकर सीधी कार्यवाही (Direct Action) का आंदोलन छेड़ दिया। वे गिरफ्तार कर लिए गये। उनके साथियों को भी जेल में डाल दिया गया। इसके पश्चात ही भारत विभाजन की घोषणा की जा सकी।
1946 के अखिल भारतीय हिन्दू महासभा अधिवेशन के पश्चात् महंतजी और श्री लक्ष्मी शंकर वर्मा हिन्दू महासभा की कार्यकारिणी समिति के सदस्य चुन लिए गये। महंतजी ने समस्त भारत का पर्यटन किया। उस समय और इसके पश्चात भी यथावसर कलकत्ता, बम्बई, दिल्ली आदि स्थानों पर जाकर उन्होंने विभिन्न सभाओं में भाषण किया। इन सभी स्थानों पर वे सर्वाधिक पूज्य और सम्मानित हुए।
गाँधी हत्या काण्ड के छींटे (1948 ई0)
भारत विभाजन के पश्चात पाकिस्तान को अधिक से अधिक सुविधाएँ देने के लिए गाँधीजी ने सात सूत्रीय मांगो को लेकर अनशन प्रारम्भ कर दिया था। उन्होंने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने का आग्रह किया। भारतीय नवयुवकों का वर्ग इसे सहन न कर सका। नाथूराम गोडसे ने उतावली में गाँधीजी की हत्या कर दी। गोडसे ने हत्या का समूचा उत्तरदायित्व स्वयं ले लिया था, किन्तु तत्कालीन सरकार ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और हिन्दू महासभा के प्रभावशाली नेताओं की धरपकड़ प्रारम्भ कर दी। महंतजी पर आरोप लगाया गया कि उन्हीं की पिस्तौल से गोडसे ने गाँधीजी की हत्या की थी। उन्हे नजरबंद कर दिया गया था और 19 महीने तक वे बंदी जीवन व्यतीत करते रहे। इस अवसर पर मठ की समस्त चल और अचल सम्पत्ति भी जब्त कर ली गई थी किंतु महंतजी न्यायालय के द्वारा निर्दोष सिद्ध हुए।
नवजीवन को क्षमादान
गाँधी हत्या काण्ड के तुरंत बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। समूचे देश में हिन्दू महासभा विरोधी प्रचार कार्य चल रहा था। इसी समय कलकत्ते में हिन्दू महासभा का अधिवेशन आयोजित किया गया था। अनेक लोगों ने इस अवसर पर बहाने बनाकर अधिवेशन में भाग नहीं लिया किंतु डाक्टर नारायण भास्कर खरे, वीर सावरकर, प्रो. देशपाण्डेय तथा महंतजी ने उसमें भाग लिया। महंतजी ने उसी अवसर पर हिन्दू युवक सभा का उद्घाटन किया।
गाँधी हत्याकाण्ड के संबंध में लखनऊ से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र ‘नवजीवन’ ने महंत जी के ऊपर खूब कीचड़ उछाला। आरोप सिद्ध न होने पर महंत जी कारावास से मुक्त हुए। उन्होंने ‘नवजीवन’ के ऊपर एक लाख रुपये की मान-हानि का दावा कर दिया। सिविल जज के न्यायालय से नवजीवन के विरुद्ध व्यय सहित एक लाख रुपये की डिग्री हो गई। किंतु ‘‘नवजीवन’’ के सम्पादकों और व्यवस्थापकों ने महंत जी से व्यक्तिगत रूप से मिलकर तथा समाचार पत्रों के माध्यम से जब क्षमा मांगी तो उदार हृदय महंत जी ने उसे क्षमा कर दिया। नवजीवन को नया जीवन मिल गया। अन्यथा उसके दिवाले की स्थिति आ जाती।
नेहरू- लियाकत पैक्ट के द्वारा हिन्दू हितों पर आघात होते देखकर उन्होंने उसका विरोध किया। शेख अब्दुल्ला द्वारा कश्मीर के अलग राज्य की मांग को उन्होंने राष्ट्रद्रोही कार्य कहा। गोवा, दमन, दीव की स्वाधीनता का उन्होंने पूर्ण समर्थन किया और ...