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युग-पुरुष महन्त दिग्विजयनाथ जी महाराज

गोरक्षनाथ मंदिर की पूर्व दिशा में एक प्रतिष्ठित मुस्लिम रईस जाहिद बाबू ने जाहिदाबाद के नाम से एक मुहल्ला ही बसा दिया। वहाँ नित्य गौकशी हुआ करती थी। मुस्लिम लीग कार्यालय से मुसलमानों का एक जुलूस निकलता था। जुलूस में प्रश्न होता था कि कहाँ जाना है? उत्तर मिलता जाहिदाबाद। क्या करने? गौकशी करने। इस प्रकार के जुलूसों ने हिन्दू-मुस्लिम विद्वेष की आग में आहुति का काम किया। सन् 1935 तक गोरखपुर में हिन्दू-मुस्लिम विद्वेष की भावना बहुत बढ़ गई थी। सन् 1937 में स्थिति ऐसी हो गई थी कि महंत जी को सत्याग्रह करना पड़ा। इन दो वर्षों का समय गोरखपुर के लिए घोर साम्प्रदायिक आतंक का समय था। महंतजी ने बड़े साहस, धैर्य और बुद्धिमता से हिन्दू जाति की रक्षा की।

हिन्दू महासभा के मंच से

हिन्दू महासभा की सदस्यता ग्रहण करते ही महंतजी सभा के प्रमुख नेताओं के वर्ग में समादृत होने लगे। कांग्रेस में रहते हुए भी वे हिन्दू हितों की रक्षा के लिए तत्पर रहते थे। सन् 1934 के पूर्व उन्होंने कांग्रेस की उन नीतियों का विरोध किया था, जिनसे हिन्दू जाति और धर्म के ऊपर किसी प्रकार के आघात की आशंका थी। सन् 1931 में कांग्रेस ने भारतीय जनगणना का विरोध किया था। महंतजी ने कांग्रेस की उस अदूरदर्शिता की निंदा की और देश में हिन्दुओं की संख्या को कम दिखाये जाने से रोका। सन् 1935 में कांग्रेस ने साइमन कमीशन का विरोध किया। सन् 1945 में क्रिप्समिशन का भी बहिष्कार किया। महंतजी ने दोनों अवसरों पर कांग्रेस की नीतियों का खुलकर विरोध किया। देश के विभाजन के अवसर पर महंत जी की बातें अधिक दूरदर्शितापूर्ण सिद्ध हुई।

हिन्दू महासभा के मंच से महंतजी को मुक्त रूप से कार्य करने का अवसर मिला। एक वर्ष पश्चात ही उन्होंने में अखिल भारत हिन्दू महासभा के वार्षिक अधिवेशन में भाग लिया। उस अवसर पर उनके भाषणों की सबने सराहना की। उन्होंने एक साथ ही धार्मिक और राजनीतिक कार्यों को अपने हाथ में लिया और कुशलतापूर्वक उनका निर्वाह किया। वे आगरा प्रांतीय हिन्दू महासभा के महामंत्री रहे। संयुक्त प्रांतीय हिन्दू महासभा के मंत्री और फिर अध्यक्ष चुने गये। सन् 1939 में डॉ. मुन्जे की अध्यक्षता में उन्होंने कमिश्नरी हिन्दू महासभा के अधिवेशन का आयोजन किया। इसी वर्ष उन्होंने अखिल भारतवर्षीय अवधूत भेष बारह पंथ योगी महासभा की स्थापना की। अनेक वर्षों तक वे उसके अध्यक्ष रहे। साधु सम्प्रदाय को उन्होंने नवीन दिशा प्रदान की। उन्होंने समस्त हिन्दू मंदिरो और मठों को धीरे-धीरे संगठित किया और उनमे एकसूत्रता लाने का सफल प्रयास किया।

सन् 1939 में दिल्ली शिव मंदिर सत्याग्रह में उन्होंने अपने गुरु भाई बाबा नौमीनाथ के नेतृत्व मे सत्याग्रहियों का जत्था भेजा था। मुल्तान की जेल में पर्याप्त समय तक सजा भुगतने के बाद यह जत्था मुक्त हुआ। इस वर्ष फौज में मुसलमानों की भर्ती पर अधिक जोर दिया जा रहा था। मुहम्मद अली जिन्ना यह चाहते थे कि फौज में मुसलमानों की संख्या अधिक हो जाये। महंत जी ने इस नीति का सख्त विरोध किया। फलतः हिन्दुओं की भी भर्ती होती रही। ब्रिटिश शासन की दृष्टि पहले से ही महंतजी पर लगी हुई थी।

सन् 1942 में महात्मा गाँधी ने भारत छोड़ो आंदोलन का नेतृत्व किया। समूचा राष्ट्र विदेशी शासन सत्ता और विदेशी सामग्रियों के बहिष्कार के लिए उतावला हो रहा था। महंतजी को उस अवसर पर मुक्त न रहने देने के लिए नौकरशाही की ओर से उन पर अनेक आरोप लगाये गये। कहा गया कि नेपाल में राणा विरोधी आंदोलन के वही सूत्रधार हैं। यह भी कहा गया कि वे जर्मनी और जापान को अंग्रेजों के विरुद्ध मदद देते हैं। महंतजी के विरुद्ध वारंट निकाला गया। उस समय मि0 यंग डी0आई0 जी0 के पद पर कार्य कर रहे थे। गोरखपुर में मि0 वाडेल पुलिस अधीक्षक थे। यंग साहब हाकी के मैदान में महंतजी के साथ खेल चुके थे और उनके विचारों से पूर्णतया अवगत थे। उन्होंने अपने उत्तरदायित्व के आधार पर महंतजी के विरुद्ध भेजे गये वारंट को वापस करा दिया था।

सन् 1944 में महंतजी ने प्रांतीय हिन्दू महासभा के वार्षिक अधिवेशन का आयोजन गोरखपुर में किया। डॉ0 श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इस अधिवेशन को सम्बोधित किया था। सन् 1947 में भारत के विभाजन का प्रश्न भारतीय नेताओं के सम्मुख था। राजगोपालाचार्य ने विभाजन के संबंध में अपना सुझाव प्रस्तुत किया जो सी आर फार्मूला के नाम से प्रसिद्ध है। महंतजी ने इस फार्मूले का डटकर विरोध किया। उन्होंने गोरखपुर में इसी वर्ष अखिल भारतवर्षीय हिन्दू महासभा का अधिवेशन बुलाया। उस समय महंतजी आगरा ...