युग-पुरुष महन्त दिग्विजयनाथ जी महाराज
उन्होंने इसे महान सांस्कृतिक केन्द्र बना दिया। शिवावतार महायोगी गुरु श्री गोरक्षनाथ की पूजा तो यहाँ नित्य होती ही थी। राम और कृष्ण के नामोच्चारणों से भी मंदिर का प्रांगण गुंजित होने लगा। ब्रिटिश शासन काल में इस मंदिर ने हिदू धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए निरंतर संघर्ष किया। अनेक विप्लवों के समय महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज ने परिस्थितियों का डटकर सामना किया अन्यथा इस क्षेत्र में आज हिन्दू जाति का रूप कुछ दूसरा ही होता।
बहुमुखी प्रतिभा का विकास
सन् 1935 में गोरक्षनाथ मंदिर के पीठाधीश्वर के पद पर अभिषिक्त होने के पश्चात महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज के व्यक्तित्व को बहुमुखी प्रसार का अवसर मिला। सन् 1969 में महासमाधि लेने के समय तक वे विभिन्न क्षेत्रों में अनवरत गति से कार्य करते रहे। उन्होंने समसामयिक समाज को सुधारने का प्रयास किया विभिन्न शिक्षा संस्थाओं तथा सांस्कृतिक केन्द्रों की स्थापना करके नवयुवक वर्ग को नयी दिशा प्रदान की, साधु समाज की परम्परागत ऐकान्तिकता और निष्क्रियता को दूर कर, उन्हें सच्चे समाज-धर्म से अवगत कराया और सक्रिय राजनीति में भाग लेकर राजनयिकों की अनवधानता दूर करने का प्रयास किया। राष्ट्र की बदलती हुई परिस्थितियों ने उन्हें हिन्दू धर्म और संस्कृति का सजग प्रहरी बना दिया। उन्होंने अपने व्यक्तित्व में विभिन्न विरोधाभासों को समन्वित कर लिया था। वे साधु होते हुए भी समाज से दूर न थे। विभिन्न संस्थाओं के संस्थापक होते हुए भी उनमें सर्वथा आसक्त न थे। राजनीति में रहते हुए भी कथनी-करनी में अंतर उपस्थित करने वाले आज के राजनीतिक छल -छद्म से उनका लगाव न था। समाज सुधारक के रूप में निरंतर कार्य करते हुए भी अपनी वैयक्तिक प्रभुता का उन्हें मोह न था। वे योगी होते हुए भी पूरे सामाजिक थे। उनके संग्रह में सेवा और त्याग का महान योग अन्तर्निहित था। वस्तुतः इस संग्रह और त्याग के सामरस्य ने ही उनको महान से महानतम बना दिया था।
हिन्दू धर्म और संस्कृति के सजग प्रहरी
हिन्दू जाति और धर्म के प्रति महंत जी का संस्कारगत प्रेम था। उनके शरीर में सिसोदिया वंश का रक्त प्रवाहित हो रहा था। राणा सांगा और महाराणा प्रताप की आन और मान रक्षा की भावना उन्हें वंशानुगत रूप में प्राप्त हुई थी। महायोगी भगवान गोरक्षनाथ के मंदिर की पवित्रता और आध्यात्मिक गरिमा ने मान, रक्षा तथा हिन्दुत्व प्रेम के साथ ही हिन्दू संस्कृति की रक्षा की भावना को और भी दृढ़ कर दिया। देश की राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों ने भी उनके सांस्कृतिक भावों को सुदृढ़ किया। राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिए ही सन् 1934 ई0 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सिद्धांतों को स्वीकार कर उन्होंने कार्य किया। किन्तु कांग्रेस की मुस्लिम-तुष्टीकरण की नीति से असंतुष्ट होकर उन्होंने उसे छोड़ दिया।
हिन्दू महासभा की सदस्यता
सन् 1939 ई0 में अमरवीर वी. डी. सावरकर काले पानी की सजा भुगत कर अंडमान से कलकत्ता आए। वहाँ अपने स्वागत में आयोजित एक विशाल सभा को उन्होंने सम्बोधित किया। उस अवसर पर भाई परमानंद और अमरवीर सावरकर के भाषणों को सुनकर महंतजी अत्यधिक प्रभावित हुए। उन्होंने उसी समय हिन्दू महासभा की सदस्यता स्वीकार कर ली।
गोरखपुर की साम्प्रदायिक स्थिति
सन् 1938-39 ई. में गोरखपुर का वातावरण भी साम्प्रदायिक भावनाओं के कारण विषाक्त हो गया था। ऐसे में हिन्दू जाति और हिन्दू धर्म की रक्षा का संकल्प लेकर महंतजी हिन्दू जाति के अग्रदूत के रूप में सामने आए।
गोरखपुर में साम्प्रदायिक प्रतिद्वन्द्विता की भावना का जन्म सर्वप्रथम 1916 ई. में हुआ था। इस वर्ष हिन्दुओं का दशहरा और मुसलमानों का मुहर्रम संयोगवश एक साथ ही पड़ गया। काजी फिरासत हुसेन मुसलमानों के नेता थे। खजांची चौराहे पर नवें दिन की ताजिया बैठाई जाती थी। उस दिन वहाँ बड़ी चहल-पहल थी। अलीनगर की रामलीला का जुलूस भी उसी रास्ते निकलता था। बडे़-बड़े रस्सों में बंधे रथ को खींचते हुए हिन्दू लोग जब मानसरोवर से खजांची के चौराहे पर पहुँचे तो काजी फिरासत हुसेन ने जुलूस को रुकवाना चाहा। अधिकारियों के हस्तक्षेप से जुलूस शान्तिपूर्वक निकल गया किंतु हिन्दू मुसलमानों के हृदय में पारस्परिक विभेद की गांठ दृढ़ हो गयी। सन् 1916 के पश्चात नगर में हिन्दू-मुस्लिम विद्वेष की आग निरंतर सुलगती गई।