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युग-पुरुष महन्त दिग्विजयनाथ जी महाराज

गोरक्षनाथ मंदिर

नाथ सम्पद्राय के आदि प्रवर्तक आदिनाथ और उसे शक्ति प्रदान करने वाले महान साधक श्री मत्स्येन्द्रनाथ तथा गुरु गोरक्षनाथ के गौरव का पुण्य प्रतीक यह मंदिर उसी स्थान पर निर्मित है, जहाँ महायोगी गुरु गोरक्षनाथ ने योग की साधना की थी। उन्होंने इस पुण्य-स्थली पर तपस्या के द्वारा उस ज्ञान-ज्योति की प्राप्ति की थी, जिसके प्रकाश में केवल उत्तरी भारत और हिमाचल के क्षेत्र ही नहीं, समूचे भारतवर्ष और पड़ोसी देशों ने भी योग की शाश्वत सत्ता को हृदयंगम किया था। योगिराज गोरक्षनाथ की अखण्ड साधना, अलौकिक सिद्धि एवं शाश्वत आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि के कारण ही उनके अनुयायी उन्हें अजर-अमर मानते हैं और उनका अस्तित्व सतयुग, त्रेता, द्वापर, और कलियुग सभी कालों में एक समान स्वीकार करते हैं।

महान गुरु गोरक्षनाथ की यह तपस्या भूमि प्रारभ में एक तपोवन के रूप में ही रही होगी। इस जन-शून्य शान्त तपोवन में योगियों के निवास के लिए कुछ छोटे-छोटे मठ रहे होंगे। मंदिर का निर्माण बाद में हुआ होगा। आज हम जिस विशाल और भव्य मंदिर का दर्शन करके हर्ष और विस्मय का एक साथ अनुभव करते हैं, वह पूज्य महन्त श्री दिग्विजयनाथ जी महाराज की ही देन है। पुराना मंदिर इस नव-निर्माण की विशालता और व्यापकता में समाहित हो गया है। यह कहना अधिक समीचीन ज्ञात होता है कि पुराने मंदिर ने अपनी विशाल साधना का चतुर्दिक प्रसार करके आज के अर्थवाद स्थूल संसार को अपनी शाश्वत महानता का अनुभव करने का अवसर दिया है।

पुराने मंदिर का निर्माण कब और किसके द्वारा हुआ, यह ज्ञात नहीं हैं मुस्लिम शासन काल में अनेक बार इस मंदिर को नष्ट किया गया किंतु महान योगी गोरक्षनाथ की तपस्या-स्थली पर निर्मित इस मंदिर ने अपनी विशेषताओं को निरंतर अक्षुण्ण रखा। अलाउद्दीन के शासनकाल में मन्दिर को पूर्णतया ध्वस्त कर दिया गया था। यहाँ पर निवास करने वाले योगियों और साधकों को निष्कासित कर दिया गया था। किन्तु थोड़े दिन के पश्चात् मंदिर का पुनर्निर्माण हो गया था और साधक योगी भी यथास्थान समासीन हो गए थे। औरंगजेब की हिन्दू धर्म विरोधी नीति का भी इसे शिकार होना पड़ा था। मंदिर पुनः नष्ट कर दिया गया, किंतु अवसर मिलते ही उसका पुनर्निर्माण हो गया। बार-बार निर्मित होने पर भी इसके मूल स्थान में कुछ भी परिवर्तन नहीं किया गया।

मंदिर का प्रांगण

श्री महंत के रूप में गोरक्षनाथ पीठ पर आसीन होते ही महंत श्री दिग्विजयनाथ जी महाराज ने मंदिर के विस्तार का संकल्प तो किया ही उन्होंने मंदिर के प्रांगण को अत्यंत विस्तृत, हरा-भरा और अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्र के अनुकूल उपकरणों से युक्त करने का भी निश्चय किया। आज मंदिर की विराट भव्यता तो पर्यटकों और श्रद्धालुओं को आकर्षित करती ही है, उसका प्रांगण भी दर्शकों के लिए आकर्षण का केन्द्र बन गया है। प्रतिदिन सहस्त्रों स्त्री-पुरुष मंदिर में दर्शन करते आते हैं। पर्वों के अवसर पर उनकी संख्या अगणित हो जाती है। मंदिर के विस्तार कार्य के साथ ही महंतजी ने पुराने मठ के स्थान पर विशाल मठ का निर्माण प्रारम्भ करा दिया। सन् 1953 में यह विशाल प्रासाद पूर्ण हुआ।

1956-57 में उन्होंने प्रांगण में स्थित सरोवर का निर्माण कराया। इसी वर्ष उन्होंने साधु-संन्यासियों के आवास के लिए एक भवन का निर्माण कराया जिसे संत निवास के नाम से अभिहित किया जाता है। श्री गोरक्षनाथ संस्कृत विद्यापीठ भवन का निर्माण 1957-58 में हुआ। योगिराज गम्भीरनाथ तथा अपने गुरु बाबा ब्रह्मनाथ की समाधियों का निर्माण भी उन्होंने कराया। मंदिर से संबंधित सारी भूमि के चारों ओर सुदृढ़ प्राचीर का निर्माण कराया। वाटिका, लॉन और फूलों की क्यारियो से उन्होंने समूचे प्रांगण को हरा-भरा कर दिया। आज गोरक्षनाथ मंदिर के प्रांगण के भवन, उनका शिल्प तथा उन पर उत्कीर्ण कला के नमूने पूज्य महंतजी की सुरुचि सम्पन्नता, सूक्ष्मदर्शिता की स्पष्ट अभिव्यक्ति कर रहे है।

गोरक्षनाथ मंदिर हिन्दू धर्म और संस्कृति का केंद्र

महंत दिग्विजयनाथ जी ने मंदिर को नवीन रूप से व्यवस्थित किया। अब तक यह मंदिर केवल नाथपंथी साधुओं का साधना केन्द्र और पर्यटक साधुओं और श्रद्धालुओं के लिए पूजा का मंदिर मात्र था। महंतजी ने इसे नाथ-योग के प्रचार और प्रसार का प्रमुख केन्द्र बनाया साथ ही हिन्दू धर्म और संस्कृति के समस्त अंगों को प्रोत्साहित करने के लिए ...