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राष्ट्र सन्त महन्त अवेद्यनाथ जी महाराज

नये युग का शुभारम्भ हुआ। हिन्दू समाज के विविध पंथों के धर्माचार्य एक साथ एक मंच पर आये। यह युग भारत में हिन्दू एकता के लिए तो जाना ही जायेगा साथ ही महात्मा गाँधी की इस उक्ति को झुठलाने के लिए भी प्रामाणिक होगा कि ‘हिन्दू कायर होता है’। श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन की सफलता के तमाम महत्त्वपूर्ण कारणों में एक महत्त्वपूर्ण कारण गोरक्षपीठाधीश्वर महन्त अवेद्यनाथ जी महाराज का नेतृत्व सभी पंथों के धर्माचार्यों द्वारा सर्वस्वीकार्य होना भी था। भारत के इतिहास में जब भी श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन पर चर्चा होगी, वह चर्चा महन्त अवेद्यनाथ जी महाराज के बगैर अधूरी मानी जायेगी।

शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के मसीहा

महन्त दिग्विजयनाथ जी महाराज के नेतृत्व में स्वाधीनता आन्दोलन के समय ही गोरक्षपीठ ने पूर्वी उत्तर प्रदेश में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा का दीप जलाया। 1932 ईस्वी में महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद् की स्थापना इसी प्रज्वलित दीप के प्रकाश की एक किरण थी। स्वाधीनता आन्दोलन के समय भारतीय मनीषियों को यह महसूस हो चुका था कि आजादी प्राप्त होने के बाद आजाद भारत का नेतृत्व करने वाली पीढ़ी रूप-रंग के साथ-साथ आचार-व्यवहार से भी भारतीय होनी चाहिए। एक तरफ स्वामी विवेकानन्द अंग्रेजी शासन की शिक्षा पर कह रहे थे- ये शिक्षा हमें हमारे महान पुरुषों के इतिहास से नहीं अपितु अंग्रेजों महान पुरुषों के इतिहास से अवगत कराती है। ये शिक्षा हमें दुर्बल बनाती है, सबल नहीं। शिक्षा के माने कण्ठस्थ करना नहीं है अपितु शिक्षा आवश्यकता के अनुरूप ही दी जानी चाहिए। शिक्षा वही है जो राष्ट्रीय पद्धति से दी जाये। स्वामी जी आगे कहते हैं- जब तक लाखों लोग भूखे और अज्ञानी हैं, तब तक मैं उस प्रत्येक व्यक्ति को कृतघ्न समझता हूँ, जो उनके बल पर शिक्षित तो बना परन्तु आज उसकी ओर ध्यान तक नहीं देता। दूसरी तरफ लॉर्ड मैकाले की आवाज गूँज रही थी- हमारे अंग्रेजी विद्यालय प्रशंसनीय ढंग से असाधारण उन्नति कर रहे हैं।.... मेरी बनाई शिक्षा पद्धति से यहाँ (भारत में) यदि शिक्षा प्रणाली चलती रही तो आगामी तीस वर्षों में एक भी आस्थावान हिन्दू नहीं बचेगा। या तो वे ईसाई बन जायेंगे या नाम मात्र के हिन्दू बने रहेंगे। धर्म या वेदशास्त्रों पर उनका विश्वास नहीं होगा।

मैकाले की शिक्षा पद्धति की अनुगूँज आनन्द कुमार स्वामी की पीड़ा में भी सुनाई देती है, जब वे कहते हैं- इसे अनुभव करना बहुत कठिन है कि कैसे भारतीय जीवन के सातत्य को पूर्णतया विच्छिन्न कर दिया गया है। अंग्रेजी शिक्षा की केवल एक पीढ़ी तथा यह अपने मूल से वंचित ऐसे अल्पज्ञ बौद्धिक अस्पृश्य का सृजन करती है जो पूर्व अथवा पश्चिम, भूत अथवा भविष्य कहीं का नहीं है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में सर्वाधिक भयप्रद है उसकी आध्यात्मिक सातत्य नष्ट होने की सम्भावना। भारत की सभी समस्याओं में सर्वाधिक कठिन तथा परम अनर्थकारी है शिक्षा की समस्या।

युगद्रष्टा महन्त दिग्विजयनाथ जी महाराज ने भारतीय मनीषियों की इन्हीं चिन्ताओं के समाधान तथा लार्ड मैकाले द्वारा उत्पन्न की गयी चुनौती से निपटने के लिए भारतीय शिक्षा पद्धति के अनुरूप शिक्षा का तन्त्र खड़ा करने की नींव 1932 ईस्वी में रख दी। महन्त अवेद्यनाथ जी महाराज ने अपने वरेण्य गुरुदेव महन्त दिग्विजयनाथ जी महाराज के सपनों को साकार किया। उन्होंने अपनी निष्ठा, सुदीर्घकालीन तपस्या और अनुभव की पूँजी से उत्तरोत्तर समृद्ध और समुन्नत करते हुए महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद् को वृहत्तर स्वरूप प्रदान किया। महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद् के अन्तर्गत आज साढ़े तीन दर्जन से अधिक शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थान, चिकित्सा संस्थान तथा सेवा संस्थान संचालित हो रहे हैं। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक के परम्परागत शिक्षण संस्थानों के साथ-साथ तकनीकी एवं स्वास्थ्य शिक्षा के संस्थानों में हजारों छात्र-छात्राएँ रोजगारपरक पुस्तकीय पाठ्यक्रमों के साथ-साथ भारतीयता तथा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ रहे हैं। प्रतिवर्ष 4 दिसम्बर से 10 दिसम्बर तक चलने वाले महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद् के संस्थापक सप्ताह-समारोह तथा 4 दिसम्बर को निकलने वाली गोरखपुर महानगर की सड़कों पर शोभा-यात्रा में सम्मिलित समस्त शिक्षण संस्थाओं के हजारों अनुशासित तथा राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत युवा पीढ़ी को देखकर महन्त अवेद्यनाथ जी महाराज के साकार स्वप्न का अनुभव किया जा सकता है। सप्ताह भर चलने वाले विविध प्रतियोगिताओं के माध्यम से विद्यार्थियों में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का भाव भरने वाले इस भव्य आयोजन का समारोप 10 दिसम्बर को होता है, जिसमें प्रतिवर्ष लगभग साढ़े छः सौ छात्र-छात्राओं को छात्रवृत्ति एवं पुरस्कार प्रदान की जाती है तथा विद्यार्थियों के समग्र विकास में भारतीयता को सर्वाधिक महत्त्व देता है।