गोरक्षपीठाधीश्वर, गोरक्षपीठ
महन्त अवेद्यनाथः-
महन्त दिग्विजयनाथजी महाराज के ब्रह्मलीन होने के पश्चात् उनके सुयोग्य शिष्य, योगदर्शन के मनीषी, आत्मतत्वविद् श्री अवेद्यनाथजी महाराज ने उत्तराधिकारी के रूप में गोरक्षपीठाधीश्वर(महन्त) पद पर अधिष्ठित होकर अपने गुरुदेव की पुण्यस्मृति को अनुप्राणित करते हुए उनके प्रायः समस्त शेष कार्यों और अनुष्ठानों की पूर्ति करते हुए उनके चरणदेश में अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि समर्पित की। उन्होंने अपने गुरुदेव द्वारा आरम्भ किये गये श्री गोरखनाथ मंदिर के भव्य पुनर्निर्माण कार्य में जो तत्परता और निष्ठा व्यक्त की, वह उनके पवित्र हृदय की गरिमा का प्रकाशन करती है। परम लोकसंग्रही श्री अवेद्यनाथजी महाराज ने श्री दिग्विजयनाथजी धर्मार्थ आयुर्वेदिक चिकित्सालय, श्री दिग्विजयनाथ स्मृति भवन, यज्ञमण्डप, योग प्रशिक्षण केन्द्र सहित अनेक शिक्षण प्रशिक्षण संस्थाओं की स्थापना कर महान पुण्यार्जन तो किया ही, अपने गुरुदेव की आत्मा की संतृप्ति का श्रेय भी प्राप्त किया। वे अत्यन्त उदार और देशकालोचित सुधार संस्कार को स्वीकार करने वाले प्रगतिशील संत थे। भारत के धर्माकाश में आज देदीप्यमान नक्षत्र के रूप में विद्यमान महन्त जी अखिल भारतवर्शीय अवधूत भेश बारह पंथ नाथयोगी महासभा तथा श्रीराम जन्मभूमि- मुक्ति-यज्ञ-समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष, विश्व हिन्दू परिषद के केन्द्रीय मार्गदर्शक मण्डल एवं धर्मसंसद के स्तम्भ के रूप में निरन्तर सक्रिय पूरे सन्त समाज में अग्रगण्य स्थान रखते हैं।
महन्त अवेद्यनाथ जी का प्रारम्भिक जीवन दिव्य संस्कारों और सहज आध्यात्मिक मनोवृत्तियों से सर्वथा सम्पन्न रहा। उन्होंने हिमालय की पवित्र गोद में स्थित पौड़ी गढ़वाल जनपद के काण्डी ग्राम में पवित्र इतिहास प्रसिद्ध सूर्यवंशी क्षत्रियकुल में मई 1921 ई.को जन्म लिया। उनका परिवार समृद्ध पवित्र निष्ठाओं और संस्कारों का धनी भरा-पूरा था। विधि ने ललाट में योग लिखा था तो भोग के प्रति वैराग्य के संस्कारों का उनकी बाल्यावस्था में ही उदय होना आश्चर्य की बात नहीं कही जा सकती। अवेद्यनाथजी महाराज के पिता श्री रायसिंहजी बिष्ट ने अवेद्यनाथ जी के पालन-पोषण और शिक्षा -दीक्षा में बड़ी सतर्कता से काम लिया। अवेद्यनाथजी महाराज की प्रारम्भिक शिक्षा उच्चतर माध्यमिक श्रेणी तक ही हो पायी थी, तभी वाराणसी में निवास कर संस्कृत के अध्ययन में भी उन्होंने बड़ी तत्परता दिखायी और उनके मन में यहीं योगी जीवन के प्रति श्रद्धा और आस्था बढ़ने लगी। उन्होंने समस्त भारतीय दर्शन शास्त्रों का अध्ययन किया और योगदर्शन के मर्म और महत्त्व को समझने का निरन्तर प्रयास करते रहे। उन्होंने तरुणावस्था के आरम्भ में ही आध्यात्मिक पिपासा की तृप्ति के लिए ऋषिकेश की यात्रा की। उस पुण्य क्षेत्र में उन्होंने अनेक तपस्वियों और संत-महात्माओं से मिलकर अपनी अनेक जिज्ञासाओं के यथार्थ समाधान का प्रयास किया। उन्होंने मानसरोवर, कैलास, तिब्बत तथा उत्तरांचल के अनेक तीर्थ-स्थानों की यात्रा कर अनेक महात्माओं का सत्संग भी किया और पूर्वजन्म के संस्कारों के अनुरूप योगदर्शन और विशेषतया नाथसम्प्रदाय के सिद्धान्तों के अनुशीलन में समय का सदुपयोग किया। इस श्रेयस्कर कार्य में उन्हें योगिराज बाबा गम्भीरनाथजी के दार्शनिक विद्वान शिष्य शान्तिनाथजी और उन्हीं के अनुवर्ती गुरुबन्धु निवृत्तिनाथजी का सहकार प्राप्त हुआ।
महन्त दिग्विजयनाथजी को सद्शिष्य की खोज थी। दैवी प्रारब्ध के अनुरूप योगी शान्तिनाथजी ने अवेद्यनाथजी महाराज को गोरखनाथ-मन्दिर, गोररखपुर की ओर आकृष्ट किया और वे उन्हीं के साथ गोरखमठ में उपस्थित हुए। श्री दिग्विजयनाथजी महाराज ने उन्हें शिष्य के रूप में स्वीकार कर 1942 ई. में 8 फरवरी को योग-दीक्षा प्रदान कर विधिवत अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। गोरक्षपीठाधीश्वर होने के पहले भी महाराज देश के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में अपनी भूमिका निभाते हुए आध्यात्मिकता के पथ पर अडिग रहे। अपनी लोकप्रियता से पाँच बार उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य चुने गये तथा चार बार भारतीय संसद में लोकसभा के सदस्य के रूप में गोरखपुर से निर्वाचित हुए । गोरखनाथ-मन्दिर और मठ तथा उससे सम्बन्धित संस्थाओं के प्रबन्धों में उन्होंने अपना जीवन पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया। श्री अवेद्यनाथजी वेदान्तदर्शन और योगदर्शन के महान और गम्भीर विद्वान होने के साथ-ही-साथ श्रीमद्भगवद्गीता के असाधारण तत्वज्ञ थे। उनकी प्रबन्धकुशलता, योगसाधना, आध्यात्मिकता और सहज उदारता से गोरखनाथ-मन्दिर और गोरखनाथ मठ की गरिमा बढ़ी। साथ-ही-साथ मन्दिर के तत्वावधान में सम्पन्न होने वाले शिक्षा, चिकित्सा तथा सामाजिक एकता के लिए छुआ-छूत मिटाने आदि सेवा सम्बन्धी कार्यों में भी विशेष प्रगति हुई।
महन्त अवेद्यनाथ जी महाराज ने अपने यशस्वी सन्त जीवन के दीर्घकालीन 45 वर्ष गोरक्षपीठाधीश्वर के रूप में व्यतीत किये। 97 वर्ष की आयु पूरी कर अवस्थाजन्य लम्बी बीमारी के चलते अपनी कर्मस्थली गोरखनाथ मन्दिर, गोरखपुर में ही आश्विन कृष्ण षष्ठी सम्वत् 2071 तद्नुसार दिनांक 14 सितम्बर, 2014 को उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए वर्तमान गोरक्षपीठाधीश्वर महन्त योगी आदित्यनाथ जी महाराज द्वारा ब्रह्मलीन महन्त दिग्विजयनाथ जी के पार्श्व में ही उन्हें चिर समाधि दी गई। ब्रह्मलीन महन्त अवेद्यनाथ जी महाराज की कीर्ति गाथा ‘यावत चन्द्र-दिवाकरौ’ हिन्दू जनमानस को अनुप्राणित करती रहेगी।