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गोरक्षपीठाधीश्वर, गोरक्षपीठ

महन्त दिग्विजयनाथ:-

योगिराज गम्भीरनाथ के बाद गोरखनाथ-मन्दिर (गोरखपुर) की ऐश्वर्य-वृद्धि में महन्त दिग्विजयनाथजी ने महान योगदान दिया। महन्त दिग्विजयनाथजी अप्रतिम तथा असाधारण कर्मयोगी थे। उन्होंने विक्रमीय बीसवीं सदी के तीसरे-चौथे चरण से इक्कीसवीं सदी के दूसरे चरण की अवधि को दिव्य सम्पत्ति अथवा योग-विभूति से सम्पन्न कर भारतीय संस्कृति, धर्म और शिक्षा-दीक्षा का वेदविहित सनातन आचार-विचारसम्मत संरक्षण किया। वे योगराजर्षि थे। उनकी कर्मयोगसाधना का सर्वस्व राष्ट्र-संरक्षण, लोककल्याण तथा साँस्कृतिक गौरव-संवर्धन था।

बाबा दिग्विजयनाथजी ऐतिहासिक महापुरुष थे, उनमें ब्रह्मबल और क्षत्रिबल का अद्भुत समन्वय था। वे योगेश्वर गोरखनाथजी के सिद्धयोगपीठ को अलंकृत करने वाले योगिराजों में विशिष्ट विभूतिसम्पन्न युगपुरुष थे। उन्होंने मेवाड़केशरी बाप्पा रावल का वंशज होने का गौरव तो प्राप्त किया ही था, वे वीरप्रसविनी राजस्थान-भूमि के पुरुषरत्न तो थे ही, साथ-ही-साथ वैचारिक और चारित्रिक धरातल पर भी वे अपने पूर्वज महाराणा प्रताप के स्वराज्यव्रत के पुण्य विग्रह थे। योगेश्वर गोरखनाथ ने भारत के राजकीय स्वत्व के संरक्षण के लिये योगाभिमंत्रित तलवार प्रदान कर बाप्पा रावल को गौरवान्वित किया था। यह एक ऐतिहासिक सर्वमान्य तथ्य है। विश्वास किया जाता है कि महायोगी गोरखनाथजी के प्रति चिरकृतज्ञता के ज्ञापनस्वरूप बाप्पा रावल के वंशज बाबा महन्त दिग्विजयनाथजी ने योगिवेश धारण किया और इस तरह उन्होंने गोरखनाथ सिद्धपीठ (गोरखपुर) की सेवा में सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर अमृतत्व प्राप्त किया। जिस तरह संत नानक के सिद्धान्त तथा उनके बाद स्वराष्ट्रसंरक्षक गुरुओं की परम्परा में गुरुगोविन्दसिंह ने भारतीयत्व-हिन्दुत्व का संरक्षण किया, ठीक उसी तरह बाबा दिग्विजयनाथजी ने भारतीय संस्कृति और राष्ट्रहित का आजीवन संरक्षण कर भारतीय इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया। ये स्वधर्म और स्वराष्ट्र के अपराजेय और आस्थावान सेनानियों में से एक थे । वे योगिराज भर्तृहरि, योगिराज गोपीचन्दजी तथा महायोगी चौरंगीनाथजी की परम्परा के राजयोगी महापुरुष थे।

बाबा दिग्विजयनाथ जी का असाधारण प्रचण्ड व्यक्तित्व अपने-आप में ओज और तेजस्विता का सजीव श्रीविग्रह था। उनके प्रशस्त विशाल ललाट में ऐश्वर्य की गंगा निरन्तर प्रवाहित होकर सम्पूर्ण शरीर पर पवित्र अभिषेक करती थी। उनके नेत्र दिव्य तेज की निधि थे। एक से प्रखर रश्मि और दूसरे से ज्योत्स्ना अविरत निःसृत होती रहती थी। ऐसा लगता था, मानो अन्याय, अत्याचार, पाप-ताप और असत्य के अन्धकार का वक्षःस्थल विदीर्ण करने वाली प्रकाशधारा एक नेत्र से निकलती थी तो विश्वमात्र को प्रेम, मैत्री, कल्याण और आनन्द में संयोजित करने वाली कृपा और करुणा वात्सल्य की अमृतवर्षिणी किरणावली दूसरे नेत्र से प्रस्फुटित होती थी। महाराज का वर्ण गौर था, व्यक्तित्व आकर्षक और मोहक था। महाराज के कर्णदेश के स्वर्णकुण्डल की गरिमा-दीप्ति उनकी दक्षता और सत्यावृत निष्ठा तथा संयमित निश्चयात्मक बुद्धि की विजयिनी पताका थी। महाराज का शरीर लम्बा और विशाल था, उनके अंग-प्रत्यंग सुगठित और सुडौल थे। उनकी अंग-कान्ति उनके गैरिक परिधान से सुशोभित होने पर उनकी अनुरागमयी सहज प्रकृति की परिचालिका थी। वे योगाचार्य, धर्माचार्य, शिक्षाचार्य-आचार्यत्रय की महिमा से सम्पन्न सिद्ध योगपीठ के महन्त ही नहीं, अप्रतिम लोकनायक भी थे।

बाबा दिग्विजयनाथजी का जन्म काकरवाँ-उदयपुर के राणावत परिवार में सम्वत् 1951 वि. वैशाख पूर्णिमा को हुआ था। उनका नाम राणा नान्हू सिंह था। मेवाड़ के महाराज प्रताप सिंह के 24 भाइयों में तीसरे भाई श्रीवीरमदेवजी के वंशज को काकरवाँ की जागीर मिली थी। उसी ठिकाने में मेवाड़ के महाराणा उदय सिंह से बाइसवीं पीढ़ी में ठाकुर उदय सिंह राणावत के कुल चार पुत्रों में तीसरे पुत्र के रूप में महन्त श्री दिग्विजयनाथ जी का आविर्भाव हुआ था। उदयपुर के सन्निकट नाथपंथ के एक योगी रहते थे, जिनका नाम फूलनाथ था। वे गोरखपुर के गोरखनाथ मन्दिर के तत्कालीन महन्त बलभद्रनाथजी के शिष्य और योगी सुन्दरनाथ के गुरुभाई थे। उदय सिंह ने उनसे निवेदन किया, ‘‘मेरी कई सन्तानें हैं। एक सन्तान मैंने गोरखपुर के गोरखनाथ -मन्दिर में चढ़ाने की मनौती की थी, अतः मैं अपनी एक सन्तान आपको भेंट करता हूँ।’’ फूलनाथजी इधर नान्हूसिंह को लेकर गोरखपुर आये और वहाँ यह खबर फैला दी गयी कि नान्हूसिंह गणगौर के मेले में खो गये। फूलनाथ ने नान्हूसिंह को गोरखनाथ मंदिर के महन्त के हाथ में सौंप दिया। योगिराज बाबा गम्भीरनाथजी की देख-रेख में इनका राजकीय ढंग से पालन-पोषण हुआ तथा शिक्षा-दीक्षा की संतोषजनक व्यवस्था की गयी। श्री दिग्विजयनाथजी के प्रारम्भिक जीवन काल में गोरखनाथ मंदिर के महंत श्री सुन्दरनाथजी थे। सुन्दरनाथजी के गुरु भाई योगी ब्रह्मनाथजी दिग्विजयनाथजी पर अपार स्नेह रखते थे। महंत सुन्दरनाथजी के ब्रह्मलीन होने के बाद 1989 वि. में ब्रह्मनाथजी महंत पद पर अधिष्ठित हुये। उन्होंने विधिवत यौगिक शिक्षा प्रदान कर दिग्विजयनाथजी को अपना शिष्य बनाया और उनके ब्रह्मलीन होने के बाद बाबा दिग्विजयनाथजी महंत पद पर अधिष्ठित हुए। इस तरह लगभग 1992 वि. से 2026 वि. की आश्विन कृष्ण तृतीया तक जीवनपर्यन्त वे महन्त पद का दायित्व संभालते रहे। उन्होंने प्राचीन गोरखनाथ मंदिर (गोरखपुर) का पुनर्निर्माण कर उसका भव्य कायाकल्प कर दिया। साथ-ही-साथ वे भारतीय शिक्षा जगत के महनीय आचार्य थे। महाराणा प्रताप के स्वाभिमान से प्रेरित हृदय की भावना से उन्होंने महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद ट्रस्ट के अन्तर्गत महाराणा प्रताप विद्यालय, गोरक्षनाथ संस्कृत विद्यापीठ, महाराणा प्रताप शिशु शिक्षा विहार, महाराणा प्रताप पालीटेक्निक, दिग्विजयनाथ स्नातकोत्तर महाविद्यालय आदि की स्थापना कर अपनी विशाल हृदयता, दक्षता तथा शैक्षिक पुनर्जागरण में सुरुचि का अनुभवपूर्ण परिचय दिया। गोरखपुर विश्वविद्यालय की स्थापना में भी उनकी अग्रणी भूमिका सर्वविदित है। उन्होंने अखिल भारतीय अवधूत भेष बारहपंथ नाथ योगी महासभा का गठन कर उसका अध्यक्ष पद भी सुशोभित किया था। उन्होंने उपर्युक्त अखिल भारतीय अवधूतभेष बारहपंथ योगी महासभा की सन् 1939 ई. में स्थापना कर योगियों के जीवन में अद्भुत संक्रांति विकसित की। वे सच्चे अर्थ में हिन्दू थे, हिन्दुओं के प्रति उनके हृदय में अगाध निष्ठा और श्रद्धा थी। सन् 1946 ई. में महाराज दिग्विजयनाथजी ने योगीश्वर गोरखनाथ की तपोभूमि, गोरखपुर महानगरी में अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के अधिवेशन का ऐतिहासिक आयोजन किया था और ग्वालियर में सम्वत् 2017 वि. में सम्पन्न हुए अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के अधिवेशन का अध्यक्ष पद भी सुशोभित किया था। वे आचार्य शंकर जी, समर्थ स्वामी रामदास जी, स्वामी दयानन्द सरस्वती जी और विवेकानन्द जी तथा स्वामी रामतीर्थ जी की परम्परा के ही प्राणवान अंग थे। वे भारतीय राष्ट्रवादिता के प्राण थे, आदर्श कर्मयोगी थे। वे कभी सत्य और न्याय के पथ से विचलित नहीं हुए। महन्त दिग्विजयनाथजी महाराज ने स्पृहणीय यशस्वी जीवन जीकर सम्वत् 2026 वि. की आश्विन कृष्ण तृतीया तदनुसार 28 सितम्बर सन् 1969 ई. को सायंकाल 75 वर्ष की अवस्था में शिवैक्य प्राप्त किया। उनका नाम, उनका कालजयी कृतित्व भारतीय इतिहास के पृष्ठों में स्वार्णाक्षरों में अंकित है।

गोरखनाथ मंदिर (गोरखपुर) के प्रांगण में ही स्थित उनका समाधि-मंदिर युगों-युगों तक असंख्य दर्शनार्थियों और श्रद्धालुओं को उत्साहित एवं अनुप्राणित करता रहेगा। उनके समाधि-मंदिर की नित्य विधि पूर्वक पूजा-आरती होती है।