नाथ सम्प्रदाय:-
रुद्राक्ष (शिव या रुद्र की आँख) तत्त्वदर्शन (ज्ञान) या ब्रह्म की प्रत्यक्ष अनुभूति से मानव-चेतना के प्रकाशित होने का प्रतीक है। योग-पद्धति के अनुसार स्वभावतः हृदय स्थित नाद की बाह्य अभिव्यक्ति के रूप में प्रत्येक श्वांस के साथ प्रणव की पुनरुक्ति, ये दोनों ही ब्रह्म की साक्षात् चेतना को प्रकाशमान करने के उपाय हैं। यह ‘नाद-योग’ है और प्रतीकों के द्वारा इसका महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। यज्ञोपवीत नाड़ी मण्डल का प्रतीक है, जिसे नादयोग के अभ्यास से प्रशान्त और नियमित करना होता है। इस प्रकार योगियों के द्वारा धारण किये जाने वाले सभी बाह्य उपकरण, जिस सत्य की उन्हें अनुभूति करनी है, जिस आदर्श तक उन्हें पहुँचना है और जिस अनुशासन एवं विधि का उन्हें पालन करना है, उसकी स्मृति को सतत सजीव करने के लिए हैं। नाथ पंथ में अभिवादन की एक अलौकिक प्रथा है। सामान्य जन से अभिवादन के समय इस पंथ के लोग प्रचलित अभिवादनों का प्रयोग करते हैं। परन्तु आपस में अभिवादन के लिए ‘आदेश’ शब्द का घोष किया जाता है। अपने से वरिष्ठ को अभिवादन करते समय ‘आदेश महाराज जी’ कहा जाता है। प्रति उत्तर में वरिष्ठ द्वारा आदेश-आदेश बोला जाता है।
गोरख-पंथ के उपसम्प्रदाय
गोरखनाथजी का योगी सम्प्रदाय कई उपपंथों में विभाजित है। इनमें से प्रत्येक या तो गोरखनाथ जी के निकटतम शिष्य या उनके प्रमुख अनुयायी द्वारा प्रवर्तित हैं। इस सभी उपपंथों की सामूहिक संख्या 12 मानी जाती है। इसलिये इन्हें ‘बारह पन्थी’ कहते हैं (अर्थात वह सम्प्रदाय जिसमें 12 उपपंथ हैं)। जिस प्रकार शंकराचार्य के अनुयायी संन्यासियों की 10 शाखाएँ हैं, उसी प्रकार गोरखपंथी योगियों की 12 शाखाएँ हैं। ये सभी शाखाएँ साधना-प्रणाली एवं दार्शनिक मत दोनों में साम्य रखती हैं और सभी गोरखनाथ जी के प्रति श्रद्धालु हैं। उनमें कुछ छोटी-मोटी भिन्नताएँ हैं। अनेक उपलब्ध तालिकाओं के आधार पर इन उपपंथों की वास्तविक संख्या 12 से अधिक हो जाती है। इससे इस बात की पूरी सम्भावना की जा सकती है कि मूल शाखाएँ आगे चलकर कुछ प्रधान गुरुओं के द्वारा पुनः विभाजित कर दी गयी हैं। सम्प्रदाय के प्रमुख उपपंथ निम्नलिखित हैं-
1. सतनाथी, 2. रामनाथी, 3. धर्मनाथी, 4. लक्ष्मननाथी, 5. दरियानाथी, 6. गंगानाथी, 7. बैरागीपंथी, 8.रावलपंथी या नागनाथी, 9. जालन्धरनाथी, 10. आई पंथी या ओपन्थी, 11. कापलती या कपिल पंथी, 12. धज्जा नाथी या महावीर पंथी। ये विभिन्न पंथ भारतवर्ष के विभिन्न भागों में अपना प्रमुख केन्द्र रखते हैं किन्तु ये सभी देशव्यापी पंथ एक संगठन से सम्बद्ध हैं। अखिल भारतवर्षीय अवधूत भेष बारह पंथ योगी महासभा केन्द्रीय संगठन की तरह कार्य करती है। इस केन्द्रीय संगठन की स्थापना ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ महाराज जी द्वारा की गयी थी। उनके बाद ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ जी महाराज इस केन्द्रीय संगठन के मुखिया रहे। वर्तमान में गोरक्षपीठाधीश्वर महंत आदित्यनाथ जी महाराज इस केन्द्रीय संगठन के मुखिया हैं। विभिन्न पंथों के मुखिया या उनके प्रतिनिधि महंत आदित्यनाथ जी महाराज के मार्गदर्शन में मंदिर, मठों या पूजा स्थलों का संचालन करते हैं। अखिल भारतवर्षीय अवधूत भेष बारह पंथ योगी महासभा भारतवर्ष में धर्माचार्यो का सबसे बड़ा संगठन है।
वृहत् साहित्य
नाथ-पंथी योगियों का साहित्य विशाल है- संस्कृत में भी और विभिन्न प्रान्तीय बोलियों और भाषाओं में भी। योग-साधना तथा सिद्धान्त को लेकर लिखे गये प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों के अतिरिक्त, जिन्हें योगी लोग पूर्णतः प्रामाणिक मानते हैं, स्वयं गोरखनाथ, ऐसी अनेक रचनाओं के प्रणेता बताये जाते हैं, जो योग-साधना के पथ पर चलने वालों के लिये अमूल्य हैं। सम्प्रदाय के परवर्ती शिक्षकों ने भी प्रचुर साहित्य-सृजन किया है। ‘गोरक्ष-शतक’, गोरख-संहिता, सिद्धान्त-पद्धति, योग-सिद्धान्त पद्धति, सिद्धसिद्धान्त-पद्धति, हठयोग, ज्ञानामृत आदि अनेक संस्कृत-ग्रन्थ गोरखनाथ जी कृत बताये जाते हैं। हठ-योग प्रदीपिका, शिव-संहिता, और घेरण्ड-संहिता योग-साधन सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं और इनके रचयिता इसी सम्प्रदाय के योगी बताये जाते हैं। ‘गोरक्षगीता’, ‘गोरक्षकौमुदी’, ‘गोरक्ष-सहस्रनाम’, ‘योग-संग्रह’, ‘योग-मंजरी’, ‘योग-मार्तण्ड’ तथा इसी प्रकार की अन्य अनेक कृतियाँ गोरखनाथ के शिक्षा-सिद्धान्तों पर आधृत हैं। इनके साथ ही हिन्दी, बंगाली, मराठी तथा अन्य भाषाओं में इस सम्प्रदाय से सम्बद्ध अनेक पुस्तकें हैं।
नाथ सिद्ध कौन थे?
‘‘नाथ सिद्ध’’ शब्द ‘‘नाथ’’ एवं ‘‘सिद्ध’’ जैसे दो शब्दों के संयोग से बना है और यह एक विशिष्ट धार्मिक वर्गवाले लोगों के लिये प्रयुक्त है। इसके अंग बन गये उक्त दोनों में प्रथम अर्थात ‘‘नाथ’’ कदाचित् अधिक पुराना कहला सकता है, क्योंकि इसके कुछ प्रयोग वैदिक साहित्य तक में मिलते हैं। ‘‘ऋग्वेद’’ के एक प्रसिद्ध सूक्त के अंतर्गत यह ‘‘समर्थ’’ वा ‘‘सक्षम’ के अर्थ में प्रयुक्त जान पड़ता है, परन्तु ‘‘अथर्ववेद’’ के एक स्थल पर इसका प्रयोग वस्तुतः ‘‘आश्रय ग्रहण करने योग्य स्थान’’ के लिए किया गया प्रतीत होता है तथा वहीं अन्यत्र इसे ‘‘स्वामी’’ अथवा ‘‘रक्षक’’ के अर्थ में भी प्रयुक्त समझा जा सकता है। इसी प्रकार बौद्धों के प्रसिद्ध मान्य ग्रन्थ ‘‘धम्मपद’’ के अन्तर्गत भी, हम इसे ‘‘स्वामी’’ अथवा ‘‘मालिक’’ वाले अर्थ में व्यवहृत होता देखते हैं। इसके सिवाय, जैन धर्म वाले दिगम्बर संप्रदाय के साहित्य में भगवान महावीर के कुल का नाम तक ‘‘नाथवंश’’ के रूप में दिया गया पाया जाता है।
‘‘नाथ सिद्ध’’ शब्द उन लोगों का बोध कराता है, जिन्होंने न केवल परमात्मतत्त्व का अपनी साधना द्वारा प्रत्यक्ष अनुभव कर लिया हो, प्रत्युत जो इस प्रकार पूर्ण सफल बन कर उसके तद्रूप तक भी हो चुके हों और जो दूसरों के लिए आदर्श कहे जा सकते हों।
‘‘नाथ सिद्ध’’ शब्द का एक पर्याय-वाची शब्द ‘‘नाथ योगी’’ भी है, जिसमें जुड़े हुए ‘‘योगी’’ को भी तत्त्वतः ‘‘सिद्ध’’ से अधिक भिन्न नहीं कहा जा सकता। इन दोनों में से किसका प्रयोग, सर्वप्रथम किया गया होगा तथा ये कब से प्रयुक्त होते आये हैं, इस बात का निर्णय करने के लिए यथेष्ट साधन उपलब्ध नहीं हैं। इस सम्बन्ध में, अभी तक केवल इतना ही कहा जा सकता है कि ये कदाचित् बहुत पुराने नहीं ठहराये जा सकते। हो सकता है कि ‘‘नाथ सिद्ध’’ का प्रयोग पहले पहल बौद्ध धर्मावलम्बी सहजयानी या वज्रयानी सिद्धों से भिन्नता दिखलाने के ही लिए किया गया हो तथा नाथपंथियों के मूलतः योगी भी होने के कारण, अधिकतर ‘‘नाथ योगी’’ शब्द का ही व्यवहार स्वभावतः होता आ रहा हो। ‘‘इसमें संदेह नहीं कि ‘‘नाथ सिद्ध’’ के स्थान पर केवल ‘‘नाथ’’ शब्द का प्रयोग कहीं अधिक प्रचलित रहता आया है और तदनुसार ही, नाथों के मत को ‘‘नाथमत’’ और उसके अनुयायियों को ‘‘नाथपंथी’’ कहने की परम्परा है।