गोरक्षनाथजी द्वारा प्रोक्त योग दर्शन एवं साधना:
प्रलयकाल में कार्य, करण और कर्तृत्व आदि सभी उपाधियों से अतीत सच्चिदानन्दसन्दोह परमशिव स्वयं और अव्यक्त रूप में विद्यमान रहते हैं, परमशिव में जब सिसृक्षा अर्थात् सृष्टि करने की इच्छा उत्पन्न होती है, तब उनसे एक साथ शिव और शक्ति संज्ञक दो तत्व उत्पन्न होते हैं। पृथक निर्दिष्ट होने पर भी गिरा-अर्थ, जल-वीचि के समान शिव और शक्ति भी एक ही है। परमशिव की सिसृक्षा अर्थात् सृष्टि की इच्छा को ही शक्ति कहा गया है जो निजा, परा, अपरा और सूक्ष्मादि अवस्थाओं से होती हुई क्रमशः कुण्डली रूप में व्यक्त होती है। इसी कुण्डली रूप में व्यक्त शक्ति से युक्त होने पर परम शिव निर्गुण से सगुण और अव्यक्त से व्यक्त होकर शिव बन जाता है। यही शिव और शक्ति सृष्टि के दो प्रथम सूक्ष्मतत्व हैं। अवधेय है कि शिव की यह शक्ति वेदान्तियों की माया या सांख्यों की प्रकृति की तरह मिथ्या या जड़ नहीं है। बल्कि सच्चिदानन्द की यह सिसृक्षा भी सच्चिदानन्द स्वरूपा है। सृष्टि चक्र के प्रवर्तित होने पर क्रमशः स्थूलतर होने के साथ ही शिव और शक्ति पृथक-पृथक स्फुटित हो जाते हैं जिससे परमार्थतः न होने पर भी प्रतिभासित और व्यावहारिक स्तर पर पृथकता का भान होने लगता है। जीव के जन्म -मरण का, उसके दुःखत्रय पीड़ित होने का कारण शिव और शक्ति का यह पृथक्त्व भान ही है। जिस दिन शिव और शक्ति समरस होकर एकमेव हो जायेंगे, सारा सृष्टिचक्र निःशेष हो जायेगा और जीव स्वरूप को प्राप्त कर सच्चिदानन्दघन हो जायेगा। योगिराज गोरक्षनाथजी ने इसी सिद्धि को सुलभ करने के लिये हठयोगसाधना प्रवर्तित की थी। तदनुसार इड़ा और पिंगला नामक सूर्य और चन्द्र नाड़ियों को रोककर सुषुम्ना में प्राण वायु संचालित करना ही हठयोग है। इससे जड़ता अर्थात् बन्धन हेतु का नाश होता है। कुण्डलिनी शक्ति जागृत होकर षट्चक्रों का भेदन करती हुई ब्रह्मरन्ध्र में शिव से सामरस्य प्राप्त करती है। इस समरसता की प्राप्ति ही योगी का चरम लक्ष्य है। किन्तु गोरखनाथजी का योगमार्ग शुष्क विचारात्मक नहीं साधनापरक है। ब्रह्माण्डीयतत्वों से घटित मानवपिण्ड को ही प्रधान मानकर इसकी व्याख्या की गयी है। इसलिए गोरखनाथजी ने कहा है कि देह में स्थित षट्चक्र, षोड़श आधार, त्रिलक्ष्य, व्योमपंचक, एकस्तम्भ, नवद्वार तथा पांच अधिदेवताओं को जो नहीं जानता वह योग सिद्धि कैसे पा सकता है? मेरुदण्ड जहाँ सीधे जाकर पायु और उपस्थ (मल तथा मूत्रेन्द्रिय) के मध्य भाग में मिलता है वहाँ एक लिंग है - स्वयंभू लिंग, जो त्रिकोण चक्र में स्थित है। इसे अग्निचक्र कहते हैं। उसी त्रिकोणया अग्निचक्र में स्थित स्वयंभूलिंग को तीन वलयों में लपेटकर सर्पिणी की भाँति कुण्डलिनी अवस्थित है। यह ब्रह्मद्वार को रोक कर सोयी हुई है। इसे जगाकर शिव से समरस करना ही योगी का लक्ष्य है। कहते हैं कि जैसे चाबी से हठात् से ताला खुल जाता है वैसे ही कुण्डलिनी के उद्बोधन से हठात् ब्रह्मद्वार भी उद्घटित हो जाता है। किन्तु यह हठयोग कैसे सम्भव हो? इसके लिए धौति-वास्ति नेति, त्राटक, नौली और कपालभाति नामक षट्कर्म बताये गये हैं जिनसे शरीरस्थ नाड़ियों को शु़द्ध किया जाता है। नाड़ी शोधन से ब्रह्मचर्य और प्राणायाम के द्वारा शरीर के अन्दर विद्यमान विन्दु, वायु और मन का निग्रह होता है। इस प्रकार उद्बुद्ध कुण्डलिनी षट्चक्रों का भेदन करती हुई सहस्रार में स्थित शिव के साथ समरस हो जाती है। संक्षेप में श्रीनाथ द्वारा प्रवर्तित हठयोग साधना का यही स्वरूप है। इसीलिए गोरखनाथजी ने कहा है कि मैंने पिण्ड में समस्त ब्रह्माण्ड का अनुसंधान कर महायोगसिद्धि का रहस्य जान लिया है। इस कायागढ़ को जीतना वीरात्मा का काम है। निर्विकार स्वरूप चिन्तन और अंतरंग साधना पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि शरीर रूपी मढ़ी में मन-योगी निवास करता है। उसने अपने लिये पंच तत्व की कंथा बनवायी है वह क्षमा का षडासन, ज्ञान की अधारी, सद्बुद्धि का खड़ाऊँ और विचाररूपी डण्डा अपनी योग साधना में उपयोग में लाता है। यहाँ शरीर का नहीं मन का योग ही वास्तविक योग है। बाह्य योगसाधनाओं और यौगिक उपकरणों की अपेक्षा आभ्यान्तर युक्तियों को ग्रहण करने से योग की सिद्धि होती है। योगी की साधना में तत्पर रहकर धैर्यपूर्वक अल्पाहार का सेवन करते हुए एकान्त का आश्रय लेकर चिन्तन करना चाहिए जो संसार रूपी रोग को हरने वाला प्राणोपम अद्वितीय अमृत है (योगबीज 102)। उन्होंने कहा है कि ज्ञान ही सबसे बड़ा गुरु है, चित्त ही सबसे बड़ा चेला। अतः ज्ञान और चित्त का योग सिद्ध कर जीव को जगत् में अपने पारमार्थिक स्वरूप परम शिव में प्रतिष्ठित रहना चाहिए। यही श्रेय अर्थात् परम कल्याण का पंथ है। गोरखनाथजी द्वारा प्रचारित योग का महत्त्व इसलिये भी अधिक आदरणीय है क्योंकि उन्होंने वामाचार के पंक से निकालकर इसे पुनः सात्विक सदाचार और सद्विचार की भूमि पर प्रतिश्ठित किया है। उन्होंने अतियों से बचते हुए ‘सहजै रहिबा’ पर जोर दिया और जैसा कि पाश्चात्य विद्वान एल.पी.टेशीटरी ने कहा है - गोरखनाथ के धर्म (योग) का प्रधान वैशिष्ट्य है इसकी सार्वजनीनता, इसी धर्म का द्वार सबके लिये खुला है।